गुरुदत्त निर्विकार शांतपणे गाण ऐकत होते. तो त्या
दुर्लक्षामुळे अधिकच चवताळलेला. एकाएकी त्याने हुकूम सोडला... 'काफी गाना हुआ. अब नाचो.' मुलगी कावरीबावरी. हात जोडून मुलीच्या कोठीवाल्या आईने विनवले, 'इनको सिर्फ गानाही सुनना है.' 'क्यूँ? उन्हे नाच भी दिखाओ ना ! मेरा हुक्म है."
ती मुलगी नाइलाजाने उभी राहिली आणि दिसलं... ती गर्भवती होती. क्षणार्धात गुरुदत्तांनी खिशातून नोटांचे भलेमोठे बंडल काढले. पुढे ठेवीत म्हणाले, 'ये महफिल हम यही खत्म करते है. चलो दोस्तों.' सुनसान मध्यरात्री रस्त्यावर सगळे निःशब्द चालू लागले. अब्रारजीही व्यथित. पण त्यांच्यातला पटकथा लेखक रोमांचित झालेला. हलकेच म्हणाला, 'यार गुरू, उस गाने की
सिच्युएशन मिल गयी.'
ही घटना प्रतिबिंबित झालेला आणि गुरुदत्त, साहिर-बर्मनदा- रफी आणि कॅमेरामन व्ही. के. मूर्ती यांनी अविस्मरणीय केलेला वेश्यावस्तीतला तो प्रसंग माझ्यासारखाच तुमच्याही डोळ्यांसमोर या क्षणीही साकार होऊ लागला असेल...
ये कूचे, ये नीलामघर दिलकशी के
ये लुटते हुए कारवाँ ज़िन्दगी के
कहाँ हैं, कहाँ है, मुहाफ़िज़ ख़ुदी के
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
ये पुरपेच गलियाँ, ये बदनाम बाज़ार
ये ग़ुमनाम राही, ये सिक्कों की झन्कार
ये इस्मत के सौदे, ये सौदों पे तकरार
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
ये सदियों से बेख्वाब, सहमी सी गलियाँ
ये मसली हुई अधखिली ज़र्द कलियाँ
ये बिकती हुई खोखली रंग-रलियाँ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
वो उजले दरीचों में पायल की छन-छन
थकी-हारी साँसों पे तबले की धन-धन
ये बेरूह कमरों में खाँसी की ठन-ठन
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
ये फूलों के गजरे, ये पीकों के छींटे
ये बेबाक नज़रें, ये गुस्ताख फ़िकरे
ये ढलके बदन और ये बीमार चेहरे
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
यहाँ पीर भी आ चुके हैं, जवाँ भी
तनोमंद बेटे भी, अब्बा, मियाँ भी
ये बीवी भी है और बहन भी है, माँ भी
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
मदद चाहती है ये हौवा की बेटी
यशोदा की हमजिंस, राधा की बेटी
पयम्बर की उम्मत, ज़ुलयखां की बेटी
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
ज़रा मुल्क के रहबरों को बुलाओ
ये कुचे, ये गलियाँ, ये मंजर दिखाओ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर उनको लाओ
जिन्हें नाज़ है हिन्द पर वो कहाँ हैं
-मच्छिंद्र ऐनापुरे, जत जि. सांगली 7038121012
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